Wednesday 21 November 2018

ये सच नहीं..


ये सच नहीं 


ये सच नहीं
कि जिंदगी फिल्मों जैसी होती है
जिसका अंत सुखद होता है
कौन अच्छा है कौन बुरा
ये सब पता होता है
सही गलत के बीच
साफ़ नजर आती है
एक चौड़ी दरार
महसूस होते हैं
सभी किरदारों के भाव
गुस्सा होता है
गलत किरदार के लिए
उबल-उबल के निकलती है
इंसानियत, प्रेम, स्नेह, दया
जो नहीं बंधा होता
दायरों में
न धर्म, न जाति
न किसी भेदभाव
बस चाहिए होती है
सत्य की जीत
प्रेम और इंसानियत का बजूद
कितने नरम दिल हैं हम...

पर ये सच नहीं है
असल में, कहाँ है ऐसा
नजर आते हैं सब
किसी भ्रम में पड़े
कि क्या सही क्या गलत
सब पहनते हैं एक चश्मा
जो असल दिखाता ही नहीं

कि कोई दरार नहीं होती
सही गलत के बीच
सब इसका फैसला करते हैं
अपनी सहूलियत से
कोई मायने नहीं
इंसानी जज्बातों के
तभी तो लटके मिलते हैं लोग
पेड़ो से
कट जाते हैं
पटरियों पे

इंसानियत और हैवानियत के बीच भी
कोई दरार नहीं
लोग भावुक तक नहीं होते
मौत पे भी
उन्हें बस चाहिए होता है
एक अंत
अपनी सोच के मुताबिक
चाहे सही किरदार
मर क्यों न जाये

उन्हें डर नहीं कि
कोई देख रहा है
और उबल रहा है
क्यों कि सभी लगे हैं
अपने हिसाब से
अंत लिखने में
ये सच नहीं
कि जिंदगी फिल्मों जैसी होती है
जिसका अंत सुखद होता है।





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