जो नींद की नहीं होती
ना ही चैन की
पल भर शांत
फिर से बेचैन सी
जिसमें होती हैं
सपने, ख्वाहिश, यादें
खुद से खुद की बातें
मन बस कुछ गुनगुनाता है
कभी कविता बनाता है
कभी गाना सुनाता है
कभी गुलजार कभी जावेद
कभी ग़ालिब को सुनता है
नए शब्दों को दिल की
आह के धागे में बुनता है
वो एक रात
बहुत छोटी लगती है
जीने के लिए
पर जिंदगी को देती है
एक नयी सुबह
वो एक रात
जो कभी आती थी
हर पांच सात दिन बाद
अब इंतजार कराती है
महीनों तक
अब तो
कई महीने हो जाते हैं
डर लगता है
कहीं सालों बाद ना आने लगे
फिर तो
कितनी सी रही होंगी
ऐसी रातें
मेरे हिस्से में
वो एक रात...