कुछ ही दिन तो हुए लॉक डाउन के
लगा जैसे अर्सा हुआ बाहर निकले
अब तो रूह सी फड़फड़ा रही है
दिन निकल जाता है बिस्तर पर
ये सोचते कि जल्द निकालूँगा
यहां जाऊँगा वहाँ जाऊँगा
ये करूंगा वो करूंगा
आज खयाल आया
कैसे रहते हैं वो
तमाम उम्र निकलती है जिनकी
लॉक डाउन में
हर गाँव में, हर कस्बे में
हर शहर में, हर घर में
कोई ना कोई रहता ही है
इन बंदिशों में
ना उन्हें अह्सास रहता है
या आदत पड़ जाती है
ना हम चाहते हैं
उन्हें आशाएं देना
कि बस कुछ दिन और बचे हैं.