Saturday 24 November 2018

दिल का OUTBOX : मन नहीं करता....

दिल का OUTBOX : मन नहीं करता....:    मन नहीं करता प्यार में गोते खाने का अब , मन नहीं करता।  दिल से सोचे जाने का अब, मन नहीं करता।। जब से माशूका घर में, बीबी ...

Wednesday 21 November 2018

ये सच नहीं..


ये सच नहीं 


ये सच नहीं
कि जिंदगी फिल्मों जैसी होती है
जिसका अंत सुखद होता है
कौन अच्छा है कौन बुरा
ये सब पता होता है
सही गलत के बीच
साफ़ नजर आती है
एक चौड़ी दरार
महसूस होते हैं
सभी किरदारों के भाव
गुस्सा होता है
गलत किरदार के लिए
उबल-उबल के निकलती है
इंसानियत, प्रेम, स्नेह, दया
जो नहीं बंधा होता
दायरों में
न धर्म, न जाति
न किसी भेदभाव
बस चाहिए होती है
सत्य की जीत
प्रेम और इंसानियत का बजूद
कितने नरम दिल हैं हम...

पर ये सच नहीं है
असल में, कहाँ है ऐसा
नजर आते हैं सब
किसी भ्रम में पड़े
कि क्या सही क्या गलत
सब पहनते हैं एक चश्मा
जो असल दिखाता ही नहीं

कि कोई दरार नहीं होती
सही गलत के बीच
सब इसका फैसला करते हैं
अपनी सहूलियत से
कोई मायने नहीं
इंसानी जज्बातों के
तभी तो लटके मिलते हैं लोग
पेड़ो से
कट जाते हैं
पटरियों पे

इंसानियत और हैवानियत के बीच भी
कोई दरार नहीं
लोग भावुक तक नहीं होते
मौत पे भी
उन्हें बस चाहिए होता है
एक अंत
अपनी सोच के मुताबिक
चाहे सही किरदार
मर क्यों न जाये

उन्हें डर नहीं कि
कोई देख रहा है
और उबल रहा है
क्यों कि सभी लगे हैं
अपने हिसाब से
अंत लिखने में
ये सच नहीं
कि जिंदगी फिल्मों जैसी होती है
जिसका अंत सुखद होता है।





Saturday 3 November 2018

मन नहीं करता....


  मन नहीं करता


प्यार में गोते खाने का अब , मन नहीं करता। 
दिल से सोचे जाने का अब, मन नहीं करता।।

जब से माशूका घर में, बीबी बनके आई है। 
कसमें वादे खाने का अब ,मन नहीं करता।।

ठंडी - ठंडी लम्बी रातें, अलसाई सी सुबह हुई। 
अब हर रोज नहाने का, मन नहीं करता।।

मुफ्त में राशन मिल जाये, तो हम भी जोगी बन जायें। 
मेहनत करके खाने का अब ,मन नहीं करता।।

जात-पात मतभेद सब, मयखानों ने तोड़ दी। 
मंदिर-मस्जिद जाने का अब , मन नहीं करता।।

अनूप जलोटा के भजनों का, ऐसा जादू छाया है। 
फ़िल्मी गाने गाने का अब ,मन नहीं करता।।

भीड़-भाड़ ये शोर शराबा, चौराहे और तंग गलियां। 
दिल्ली छोड़के जाने का अब ,मन नहीं करता।।




Sunday 13 May 2018




मैं जकड़ा हुआ हूँ 
जब भी कुछ अलग करना हो 
या नया 
फिजूल  शख्स दिखते हैं 
कि बे क्या कहेंगे 
मैं आज़ाद नहीं हूँ 
 मैं जकड़ा हुआ हूँ। 




Sunday 8 April 2018


बूची की दुकान  

कभी बचपन की
बड़ी ख्वाहिशों को पूरा करती
वो एकलौती दुकान
हाथ में चवन्नी आते ही
बस  पुरे जोश से भाग दिया करते
मैं ही नहीं, हर तरफ से
और वो उतने ही जोश से
हमारी पसंद को पूरा करता
जाने कैसे जानता था वो
सभी बच्चो के मम्मियों के नाम
जिससे हमें चिढ़ थी
और वो उन टॉफियों को
जो अक्सर पारले की हुआ करती
हमारी नन्ही हथेलियों में लगभग
खोंस देता था
कस कर पकडे हुए हम
उन्हें घर आकर खोलते
और पसीज चुके हाथो से
उन्हें निकाल उनका भरपूर आनंद लेते
सोचते काश हम दिनभर वही बैठे रहें
वक़्त बदला दुकानें भी बढ़ी
शायद और भी अच्छी अच्छी
पर वो दुकान जैसे बचपन ही बन गई
फिर और वक़्त गया और बचपन भी कही खो गया
पर उधर से निकलते गाहे बगाहे
नजर चली ही जाती
लगता जैसे कोई ओटक से टकटकी लगाए है
कुछ हिल सा जाता
वक़्त परिंदा है
कहा रुकता है
कुछ दिन पहले उधर से फिर गुजरा
पता चला बूची नहीं रहा
लगा कोई किरदार मर गया
अपने बचपन का
दिल बैठ गया
आखें छलछला उठी
जिसने बचपन गुलजार किया
वो अब नहीं रहा
बच्चा होता तो शायद खुलकर रोता भी
नजर गई उसी जगह की तरफ
अब एक नई दुकान बन गई थी
इधर उधर देखा
और आगे बढ़ गया
बचपन को रोता छोड़कर। ........






Thursday 15 March 2018




जा रही थी वो
हमेशा के लिए
मुझसे दूर
शादी थी उसकी
मैं चुप था
हमेशा की तरह
जाने किसका लिहाज
जाने कैसा डर
बहुत दुखी
परेशान
खड़ा था चौराहे पर
देख रहा था
उसे जाते हुए
परिवार के साथ
कही दूर
जहाँ उसकी शादी थी
गाडी में बैठी वो
बेबस और दुखी
मुझे देख रही थी
वो शायद आखिरी पल
और ताउम्र बिछडन
चले गए वो
लगभग शून्य था मैं
बस की गिरने ही वाला
रोक न पाया और अचानक
भाग चला
जितनी तेजी से
भाग सकता था
बिना देखे बिना सोचे
रस्ते में लोग मिले
पर उनका कोई लिहाज नहीं आज
बस रोये जा रहा था 
वो सब मिले
जिनसे मैं डरता रहा
कुछ बोलना था उनसे
पर बस चिल्लाता
और रोता
शायद सब समझते थे वो
या कुछ भी नहीं
वो मूक और नकाब पहने
भाव शून्य चेहरों से देखते
और आगे बढ़ जाते
कुछ पलों में लगा
जैसे सैकड़ो से मिला
जिनसे मुझे फर्क पड़ता था
पर उन्हें
कोई फर्क न पड़ा
और फिर में कही था
शायद वो मेरा घर था
वो सभी थे
जो अपने थे
जैसे इंतजार था उन्हें
मेरा
मैं लिपट गया
बारी बारी
रिरियाने लगा
रोक लें उसे
जा रही है वो
हमेशा के लिए
अफ़सोस
और हतप्रभ भी
वो ही भाव शून्यता देखकर जो
उन सेकड़ो लोगों पर थी
अचानक
सब गायब
सब कुछ
न लोग न घर
मैं अकेला केवल अकेला
और फिर लगा
जैसे उड़ रहा  हूँ
या की गिर रहा हूँ
चिल्लाया
और लगभग हांफते हुए
मेरी नींद खुली
लाइट बंद थी
बिस्तर पर पड़ा था
मोबाइल देखा
रात के ढाई बजे थे
एक लम्बी गहरी  सांस ली
गला सूखा था
सर्दी भी लग रही थी
खिड़की के बाहर  कूलर में
कबूतर के बच्चो की खटपट
सुकून दे रही थी
की मैं अकेला नहीं था
बहुत स्याह रात थी
साढ़े पांच बज गए
खुद को भरोसा दिलाने में
की ये केवल स्वप्न था
भयावह स्वप्न।










लॉक डाउन

कुछ ही दिन तो हुए लॉक डाउन के लगा जैसे अर्सा हुआ बाहर निकले  अब तो रूह सी फड़फड़ा रही है  दिन निकल जाता है बिस्तर पर  ये सोचते कि जल्द निकाल...