Sunday 8 April 2018


बूची की दुकान  

कभी बचपन की
बड़ी ख्वाहिशों को पूरा करती
वो एकलौती दुकान
हाथ में चवन्नी आते ही
बस  पुरे जोश से भाग दिया करते
मैं ही नहीं, हर तरफ से
और वो उतने ही जोश से
हमारी पसंद को पूरा करता
जाने कैसे जानता था वो
सभी बच्चो के मम्मियों के नाम
जिससे हमें चिढ़ थी
और वो उन टॉफियों को
जो अक्सर पारले की हुआ करती
हमारी नन्ही हथेलियों में लगभग
खोंस देता था
कस कर पकडे हुए हम
उन्हें घर आकर खोलते
और पसीज चुके हाथो से
उन्हें निकाल उनका भरपूर आनंद लेते
सोचते काश हम दिनभर वही बैठे रहें
वक़्त बदला दुकानें भी बढ़ी
शायद और भी अच्छी अच्छी
पर वो दुकान जैसे बचपन ही बन गई
फिर और वक़्त गया और बचपन भी कही खो गया
पर उधर से निकलते गाहे बगाहे
नजर चली ही जाती
लगता जैसे कोई ओटक से टकटकी लगाए है
कुछ हिल सा जाता
वक़्त परिंदा है
कहा रुकता है
कुछ दिन पहले उधर से फिर गुजरा
पता चला बूची नहीं रहा
लगा कोई किरदार मर गया
अपने बचपन का
दिल बैठ गया
आखें छलछला उठी
जिसने बचपन गुलजार किया
वो अब नहीं रहा
बच्चा होता तो शायद खुलकर रोता भी
नजर गई उसी जगह की तरफ
अब एक नई दुकान बन गई थी
इधर उधर देखा
और आगे बढ़ गया
बचपन को रोता छोड़कर। ........






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